क्या है ॐ का रहस्य
पिछली पोस्ट में मैंने आपको ॐ का प्रयोग मंत्रों में क्यों होता है इससे आपको अवगत करवाया और जैसा कि मैंने पिछली पोस्ट में कहा था कि मैं आपको ॐ के तीनों भागों अ उ और म से अवगत करवाऊंगा और यथाशक्ति आपको अमात्रा के रहस्य भी समझाऊंगा। ओम के बारे में पिछली पोस्ट में आपको विवरण दिया गया उसमें मैंने आपको बताया की नाभि क्षेत्र, कंठ क्षेत्र और कपाल क्षेत्र आपके सभी चेतना क्षेत्रों में और ऊर्जा क्षेत्रों में ॐ सकारात्मक प्रभाव देता है जब एक साधक सांस भर कर ओम बोलता है और ओम की ध्वनि तीन भागों में बोलता है तो सबसे पहले उसका नाभि क्षेत्र और हृदयक्षेत्र से कपाल कस क्षेत्र पर प्रभाव पड़ता है ।
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अ बोलने से मूलाधार चक्र स्वाधिष्ठान चक्र और मणिपुर चक्र इन में कंपन पैदा होती है और आपकी जठराग्नि प्रदीप्त होती है उसके साथ-साथ साधक अंतर्मुखी होता है और ध्यान की गहराइयों में जाने के लिए तैयार होता है । उ के द्वारा ह्रदय चक्र अनाहत चक्र विशुद्धि चक्र तथा आज्ञा चक्र पर प्रभाव पड़ता है। हृदय चक्र आज्ञा चक्र और उनके प्रभाव से व्यक्ति की ऊर्जा नाभि से जो ऊर्जा मणिपुर चक्र तक गई है वह मस्तिष्क की ओर अथवा कपाल क्षेत्र की ओर अवतरित होती है। म शब्द का नाद मस्तिष्क में कपाल में ऊर्जा को विस्तृत करता है और म की कंपन से सहस्त्रार चक्र तक ऊर्जा पहुंचती है । जब सारी वायु म के अंत तक खाली हो जाती है तो जो ऊर्जा और शून्य बचता है वह है अमात्रा। इस स्थिति में पहुंचकर साधक दृष्टा हो जाता है और अपनी शारीरिक मानसिक और आंतरिक बाह्य ऊर्जा को समझने लगता है। दृष्टा भाव से साधक जिस स्थिति में पहुंचता है वह एक ऐसी दैवीय शक्ति और ऐसी ब्रह्मांडीय उर्जा है जो व्यक्ति को अनंत परमेश्वर की तरफ समर्पण और साधना भाव में एकाग्रता लाने में सक्षम करती हैं। यह तो थी आधारभूत बातें अब हम इसके और रहस्य को जानने की कोशिश करेंगे।
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अब मैं आपको बताऊंगा क्या है जागृत स्वप्न और सुषुप्ति और इन तीनों अवस्थाओं से ऊपर उठकर कौन सी है तुरीय अवस्था। ध्यान में जैसे-जैसे साधक जाता है और ॐ का नाद और ओम का गुंजन करता है । वैसे वैसे ही साधक उर्ध्वगामी होता है। व्यक्ति की ऊर्जा ऊपर को उठनी शुरू होती है और आपके काम और गुदा क्षेत्र से ऊर्जा ऊपर को उठनी शुरू होती है , वह व्यक्ति को ध्यान में अग्रसर होने में मदद करती है। जो साधक ओम को पूर्ण समर्पण भाव से करता है वह इस तथ्य को भली-भांति जान सकता है।
जागृत अवस्था वह अवस्था है जिसमे की व्यक्ति अपनी दैनिक कार्यकुशलता से सभी कार्य करता है। अपनी बुद्धि का प्रयोग करता है बल का प्रयोग करता है जीवन यापन करता है। परंतु सही अर्थों में जागृत अवस्था नाम ही ध्यान की तरफ अग्रसर होने का। साधक का मन जब उसके वश में हो कर सत्य की खोज में लगता है ध्यान में लगता है तो वह है जागृत अवस्था।
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स्वप्नावस्था में साधक नींद जैसी स्थिति में होते है । उसे दृश्य दिखने शुरू होते है, ध्यान में खोने लगता है परंतु उसके साथ उसके आंतरिक संस्कार स्वप्न जैसी अवस्था बनाते है चेतन मन से व्यक्ति अवचेतन मन की यात्रा पर अग्रसर होता है। अलग अलग दृश्य उसे दिखायी पड़ते है विचार आते है और व्यक्ति जैसे कि नींद में स्वप्न देखता है वैसी ही स्थिति अवचेतन मन द्वारा उत्पन्न होती है।
सुसुप्ति अवस्था है जब व्यक्ति जाग्रत अवस्था को भी पार कर स्वप्नावस्था को भी प्राप्त कर लेता है तो अगली अवस्था सुसुप्ति है । जिसका अर्थ है स्वप्नों का भी तिरोहित हो जाना। ध्यानी मनुष्य के स्वप्न तिरोहित हो जाते है। वह जब दैनिक कार्यो में भी होता है तो कोई भी वस्तु विचार उसे ललायित या भृमित नही करता। सुसुप्ति का अर्थ है भ्रम ,स्वप्न ,विषय, विचार समाप्त हो कर शुद्ध चेतना का बचना।
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तुरीय अवस्था वह है जिसको की सभी योगी तांत्रिक मांत्रिक सभी प्राप्त करना चाहते है इस अवस्था अर्थ है चौथी अवस्था। जिसको हम दृष्टा भाव भी बोलते है । इस अवस्था मे साधक शरीर को अपने खो कर शुद्ध चेतना के शून्य में सिर्फ देखता है । दृष्टा भाव से सभी कार्य करता हुआ भी वह कर्म धर्म अर्थ लोभ विषय विकार जीवन मृत्यु आदि से अछूता रह कर बस उस प्रभु की सत्ता का आनंद लेता है। तुरीय अवस्था को शब्दों में पूरी तरह बांध पाना अत्यंत ही कठिन और असम्भव की तरह है। ये गूंगे का गुड़ है जिसका स्वाद तो उसे आ रहा है परंतु बोल नही सकता । क्योंकि वह अवस्था पूर्ण शांति शून्य और आत्मा से एकाग्रता और प्रभु के प्रकाश में एकात्म की है।
यम के नचिकेता के साथ संवाद से इस पोस्ट का अंत करता हूँ
'ॐ' ही अक्षरब्रह्म है। इस अक्षरब्रह्म को जानना ही 'आत्माज्ञान' है। साधक अपनी आत्मा से साक्षात्कार करके ही इसे जान पाता है; क्योंकि आत्मा ही 'ब्रह्म' को जानने का प्रमुख आधार है। एक साधक मानव-शरीर में स्थित इस आत्मा को ही जानने का प्रयत्न करता है।'
कठोपनिषद
आगे इस विषय पर हम चहरच करेंगे कि ॐ का आपके शरीर के रसायन शारीरिक क्षमता और आंतरिक क्षमता और कार्य सिद्धि में क्या महत्व है
ब्लॉग के माध्यम से हम यह कोशिश करेंगे के तंत्र के मूल स्वरूप को समझ कर हम आपको महादेव भगवान शंकर और माँ दुर्गा के इस सृष्टि रहस्य से अवगत करा Uसके। और गुरु शिष्य परम्परा से आपको अवगत करा सके जो कि तंत्र मंत्र और इनके ज्ञान में सबसे महत्वपूर्ण भाग है।
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